सोचा था जीवन भर सुखी रहूँ
दुःख को भी झेलना पड़ा
हँस हँस कर जीवन बिताना चाहा
फिर भी मुझे सोना ही पड़ा
ऋतु बसंत में जीना चाहा
वर्षा ऋतु से जूझना पड़ा
अधरखोल हँसना चाहा
नयनों से नीर निकल पड़ी
कुसुम पथ से गुजरना चाहा
मार्ग में कंटक गिरा पड़ा
सुख के क्षण को संभालना चाहा
दुःख के पल से जूझना पड़ा
सोचा था जीवन फूलों सी अय्यासी हो
शूलों के दर्द को सहना पड़ा
बीते पल को भूलना चाहा
याद ज्यों कि त्यों बनी रही
प्यार के पल में जीना पड़ा
कहना चाहा दिल की व्यथा
कंठो मेंआकर रुक पड़ा
दिलों से लक्ष्य पाना चाहा
लक्ष्य विहीन होकर रह गया
संभालना चाहा समय
विधाता को विघन डालना पड़ा
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